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मेरी बात: धीमे जहर का घूंट, कब तक! on सहारा समय
- sanjeev srivastava
- नतीजा यह है कि अब इन दो भाइयों की होड़ में एक के बाद एक आज की मुम्बई का प्रत्येक आधुनिक, लोकप्रिय और सही बात करने वाला नायक, ठाकरे बुंधुओं के जैसे निशाने पर हैं।
खेल शुरू किया राज ठाकरे ने। मराठी बनाम गैर-मराठी मामले को हिंसक हवा दी, माहौल को विषैला बनाया और भारत के सबसे बड़े शहर को जैसे बंदूक की नोक पर घुटने टिकवा दिये। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को उनकी राजनीतिक जगह दिखाने और आधिकारिक शिवसेना को कमजोर करने के लिए कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने राज ठाकरे का कमोवेश वही इस्तेमाल किया जो कभी कांग्रेस ने पंजाब में अकालियों से निबटने के लिए भिंडरावाले का किया था।
सरकारी शह पर राज ठाकरे ने कभी अमिताभ बच्चन तो कभी बिहारियों तो कभी सभी उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया।
उद्धव कुछ स्वभाव और सोच से शालीन रहे तो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी निबट गई। - इन दिनों असल जहर उगल रहे हैं बाला साहब। कभी सचिन तेंदुलकर उनका निशाना होते हैं तो कभी मुकेश अंबानी। कभी शाहरूख को वह चुनौती भरे अंदाज में सचेत करते हैं और धमकाते हैं तो कभी उनके शालीन, मृदुभाषी पुत्र सैफ अली खान को टपोरी कह सार्वजनिक रूप से हड़काते हैं।
- पर इस ‘कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना’ की राजनीति में हमारा समाज एक ऐसे दलदल में फंसता जा रहा है जहां से अगर कभी निकलना नहीं हो पाया तो लेने के देने पड़ सकते हैं।
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