Tuesday, December 1, 2009

इतिहास का सच और भविष्य की चुनौती है अखंड भारत

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    akhand bharat
    • गोविन्दाचार्य
    • भारत एक भूराजनैतिक वस्तु ही नहीं है। यह भूसंस्कृति भी है। भूसमाजविज्ञान भी है, भूमनोविज्ञान है, भूदर्शन है। इस भू का काफी महत्व है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में शोध, अधययन करने वाले, पढ़ने-लिखने वालों के लिए यह एक रोचक पहलू है।
    • यह अनायास नहीं है कि दुनिया के भूभागों में से भारत वह भूभाग है जहां एक दैवी त्रिकोण का अस्तित्व है। वह त्रिकोण है धरतीमाता, गौमाता और घर की माता। इसमें हरेक कोण शेष दो को मजबूत करता है।
    • मेरा मानना है कि आज अगर मन के स्तर पर विभेद और मजहब का रिश्ता ज्यादा मजबूत दिखाई देता है तो उसके पीछे आज का वह परिदृश्य भी कारण है जिसमें पाकिस्तान की मजहबी जुनून को बढ़ाने वाली हुकूमत और कई इस्लामिक देशों द्वारा पैसा, समाज और रूतबे का अंधाधुंध उपयोग है। इन सबके कारण स्थानीय रिश्तों और संबंधों की बजाय एक विशेष मजहबी भाव मानस पर हावी हो जाता है।

       इसका अर्थ यह हुआ कि आज के परिदृश्य से यदि इन दो कारक तत्वों को मिटा दें तो फिर ये सारे ही समीकरण एकदम बदल जाएंगे और यह प्रश्न ही असंगत हो जाएगा। इसलिए हम यह क्यों मान रहे हैं कि स्थितियां सदैव ऐसी ही होंगी? आज विश्व के वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में हटिंगटन ने सभ्यताओं की लड़ाई की जो बात कही है, वह भले ही पूरी सही नहीं है लेकिन उसमें कुछ तो सत्यता है।

    • वास्तव में समाज का भूसांस्कृतिक पक्ष अंतरतम में रहता है और अपना असर करता रहता है। समाज का भूराजनैतिक पक्ष सतह पर रहता है। काल प्रवाह में भूसांस्कृतिक तथा भूमनोवैज्ञानिक और इसलिए भूसमाजविज्ञानी पक्ष प्रभावी होते जाएंगे। इसके लिए आवश्यक है कि उनको अपने बारे में 700-800 या हजार साल पहले के सभी तथ्य बताए जाएं। उन्हें बताया जाए कि वे पहले क्या थी, अब क्या है? पाणिनी से पाकिस्तान के सामान्य जन का क्या रिश्ता है, इस ओर जब वे सोचने लगेंगे तो उनके मनोविज्ञान में काफी बदलाव होगा।
    • विगत एक हजार वर्षों में भारत को एक विशेष प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा। एक सहिष्णुता, समरसता और समजसता के गुण वाले समाज को असहिष्णु, एकाकी, सर्वंकश और सर्वग्रासी राजनैतिक पंथसत्ता से लड़ना पड़ा। वह पांथिक राजसत्ता नहीं, राजनैतिक पंथसत्ता थी। वास्तव में इस्लाम एक स्टेटक्राफ्ट है जिसका एक हिस्सा जीव और जगदीश के संबंधों के बारे में भी कुछ सोचता और बोलता है।
    • यूरोपीय संघ से दक्षिण एशियाई महासंघ की तुलना करना ठीक नहीं है। वहां जिन देशों का संघ बना है उनमें सभ्यता व सांस्कृतिक स्तर पर अत्यधिक समानताएं हैं। मजहब भी उनका एक है। इसकी तुलना में अभी दक्षिण एशिया की स्थिति काफी भिन्न है। इस पर भी यूरोपीय संघ में ही कई अंतर्विरोध भी हैं। तुर्की यदि यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है तो वे चिंता में पड़ जाते हैं।

      वास्तव में इस्लामिक आबादी के बढ़ाव से वे भी काफी परेशान हैं। स्पेन के लोगों में इस्लाम का विरोध और उसके प्रति कटुता भारत में 50 साल पहले विस्थापित हुए लोगों से भी कहीं अधिक भीषण और तीव्र है। फ्रांस अल्जीरिया से हो रहे घुसपैठ से परेशान है। वस्तुत: यूरोपीय संघ में मजहब और भूसांस्कृतिक स्तर पर एक समानधर्मिता है, इसलिए वे एक हद तक थोड़ा बहुत चल पाए। इस आधार पर सोचें तो भारत महासंघ की कल्पना तथ्यात्मक कैसे हो सकती है?

      इसके लिए बहुत से सुधार होने की आवश्यकता है। 1707 से 1894 के बीच समाजसता का जो क्रम चल रहा था, जिसमें विदेशी ताकतों के यहां से मिल रहा प्रश्रय और उनके प्रति सद्भाव बिल्कुल नहीं था, वह फिर से चलना जरूरी है। एक ही परंपरा और आदर्श से ओत-प्रोत जनमानस बनना, ऐसे किसी भी महासंघ बनने की पूर्व शर्त है।

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