Tuesday, May 19, 2009

आत्मचिंतन का अवसर

आत्मचिंतन का अवसर

तरुण विजय

आतंकवाद, महंगाई, बेरोजगारी, हिंदुओं के प्रति संाप्रदायिक भेदभाव और मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे विषय सामने होते हुए काग्रेस के नेतृत्व में संप्रग जीत गया। इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि संप्रग की विफलताओं को प्रकट करने वाले तमाम मुद्दे गलत थे या उन पर जनता उद्वेलित नहीं थी। यह वैसे ही होगा जैसे बादलों से भरे आकाश में सूर्य को अनुपस्थित मान लिया जाए।

मुख्य बात है संख्या बल। संख्या बल तब आता है जब आत्मबल मजबूत हो। भाजपा का आत्मबल वैचारिक निष्ठा से शक्ति पाता है। अगर वैचारिक निष्ठा प्रबल नहीं है तो भाजपा और बाकी दलों में अंतर क्या रह जाएगा? अगर भाजपा ने अपने रंग को हल्का किया तो उसका जो वर्तमान जनाधार है वह न केवल अधिक दरक जाएगा, बल्कि नया जनाधार भी नहीं बनेगा।

देश जिन चुनौतियों से घिरा हुआ है उसमें सत्ता पक्ष के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर रचनात्मक सहयोग की भूमिका लेते हुए ऐसा कड़ा विपक्ष देना चाहिए जो सरकार को किसी भी प्रश्न पर कमजोरी न दिखाने दे। संप्रग की जीत का यह अर्थ नहीं है कि क्वात्रोची जैसे मामले, सीबीआई जैसी संस्थाओं में सरकारी दखल, आतंकवाद और बेरोजगारी जैसे मुद्दे निरर्थक हो गए। कड़े विपक्ष की भूमिका में तपते हुए भाजपा को भी आत्ममंथन और आत्मसुधार का मौका मिलेगा।

श्रीलंका में तमिलों के साथ भीषण अत्याचार हो रहे हैं, लाखो तमिल परिवारों के शरणाथर्ीं बनने की व्यथा के प्रति भारत का राजनीतिक वर्ग पूर्णत: उदासीन दिखता है। प्रातीयतावाद इतना हावी है कि कश्मीरियों का दर्द व्यक्त करना जम्मू का दायित्व है, महाराष्ट्र या उड़ीसा का नहीं और तमिलों की वेदना पर कार्रवाई के लिए तमिलनाडु के नेता बोलेंगे, बिहार या पंजाब के नहीं।

अखिल भारतीय दृष्टि और भारत के हर हिस्से की वेदना पर हर दूसरे क्षेत्र में समानरूपेण प्रतिध्वनि का भाव गहरा होने के बजाय विरल ही होता जा रहा है। इसलिए राजनीति के वर्तमान खंडित स्वरूप को एक अस्थाई और अस्वीकार्य दौर के रूप में मानकर एक ऐसी अखिल भारतीय समदृष्टि वाली राजनीति के लिए प्रयास आरंभ करने चाहिए जिसमें हर क्षेत्र की आकाक्षाओं और विकास का समानरूपेण ध्यान रखने वाला राष्ट्रीय नेतृत्व विकसित हो।

प्रभाकरण के साथ एक सपना भी अस्त हुआ

प्रभाकरण के साथ एक सपना भी अस्त हुआ

प्रभाकरण सुभाष चन्द्र बॉस व भगत सिंह से प्रभावित था. वह भारत से प्रशिक्षण व हथियार भी पाता था. तब राजीव गाँधी सत्ता में थे.

भारतीय फौजें श्रीलंका में शांति स्थापना के नाम पर गई थी. वे लिट्टे से हथियार रखवाती, दुसरी तरफ से रॉ उन्हे हथियारों की आपूर्ति करती. पता नहीं राजीव ऐसा क्या सोच कर कर रहे थे?

फिर उन्होने एक दिन सेना से कहा लिट्टे पर हमला कर दे. सैनिक असमंजस में आ गए. कल तक जिन्हे मित्र मानते थे अब उन्हे ही दुश्मन बताया जा रहा था. फिर यह वहाँ श्रीलंका में किसी और की लड़ाई में टाँग डालने जैसा भी था. भारत के लिए लड़ना होता तो जी-जान लगा भी देते. इधर वे तमील क्षेत्र में थे, यानी घिरे हुए थे. हमारे राजनेता की इस मूर्खता ने देश के 1100 से ज्यादा सैनिकों की जान ले ली. मगर अंत में शहीद कौन कहलवाया? ऐसा ही होता है.

चुनावों तक श्रीलंका को रोके रखा गया और चुनाव पूरे होते ही प्रभाकरण को मार दिया गया. यह कैसी राजनीति है, कॉंग्रेस ने ही तो उसकी मदद की थी….इसीलिए दुख होता है.