'आहत इतिहास' राष्ट्र अस्मिता को कमजोर करता है। राष्ट्रीय अस्मिता का विस्फोट इतिहास को समृद्ध करता है। 6 दिसंबर 1992 को उत्तार, दक्षिण, पूरब, पश्चिम-पूरा भारत एक था। विंध्य, हिमाचल, यमुना और उच्छल जलधि में ज्वार था। पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा, द्रविण, उत्कल, बंग अयोध्या में ही थे। परशुराम के केरल से भी जय श्रीराम की यात्राएं चलीं, न कोई राज्य बचा, न कोई क्षेत्र। राष्ट्र जीवमान सत्ता है। व्यक्ति की ही तरह राष्ट्र की भी अपनी अस्मिता होती है। व्यक्ति अपनी अस्मिता अक्सर प्रकट करते रहते हैं, लेकिन राष्ट्र अपनी अस्मिता के प्रकटीकरण में धीरज रखते हैं। भारत ने भी धीरज रखा। श्रीराम भारत का मन हैं, वे भारत की मर्यादा हैं, शील हैं, विनय हैं। राष्ट्र ने लंबी प्रतीक्षा की। सवाल राष्ट्रीय अस्मिता बनाम इस्लामी आक्रामकता का था, बावजूद इसके करोड़ों श्रद्धालुओं को अपमान ही मिला। सहिष्णुता और धीरज की हद होती है।
6 दिसंबर का ध्वंस सृजन की भावभूमि का मंगल आचरण था। भारत का अवनि अंबर आनंदमगन था। आहत इतिहास को सात्वना मिली, श्रीराम मंदिर अब राष्ट्रीय अपरिहार्यता है। श्रीराम मंदिर के सवाल को ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता। यह मसला राजनीतिक नहीं है। सवाल विदेशी इस्लामी आक्रामकता बनाम राष्ट्रीय अस्मिता का है। बाबर और बाबरी मस्जिद विदेशी आक्रामकता के पर्याय हैं। कनिंघम ने दर्ज किया, ''अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाते समय हिंदुओं ने जान की बाजी लगा दी। इस लड़ाई में 1 लाख 74 हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही मीर बाकी तोपों के जरिए मंदिर को क्षति पहुंचा सका।'' यह लड़ाई लगातार चली। आईने अकबरी कहती है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि की वापसी के लिए हिंदुओं ने 20 हमले किए। आलमगीरनामा में जिक्र है, ''रमजान की सातवीं तारीख को शाही फौज ने फिर अयोध्या की जन्मभूमि पर हमला किया। 10 हजार हिंदू मारे गए।'' लिब्रहान ने अपनी भीमकाय रिपोर्ट में यह कथानक नहीं लिखा। भारतीय इतिहास की शुरुआत बाबरी मस्जिद से ही नहीं होती।