अंबाला जेल की कालकोठरी से अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे का अपने माता - पिता के नाम अन्तिम पत्र: "परम् वंदनीय माताजी और पिताजी ,
अत्यन्त विनम्रता से अंतिम प्रणाम ।
आपके आशीर्वाद विद्युतसंदेश से मिल गये । आपने आज की आपकी प्रकृति और वृद्धावस्था की स्थिति में यहाँ तक न आने की मेरी विनती मान ली , इससे मुझे बडा संतोष हुआ है । आप के छायाचित्र मेरे पास है और उसका पूजन करके ही मैं ब्रह्म में विलीन हो जाऊँगा ।
लौकिक और व्यवहार के कारण आप को इस घटना से परम दुःख होगा इसमें कोई शक नहीं । लेकिन मैं ये पत्र कोई दुःख के आवेग से या दुःख की चर्चा के कारण नहीं लिख रहा हूँ ।
आप गीता के पाठक है , आपने पुराणों का अध्ययन भी किया है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया है और वही भगवान ने राजसूय यज्ञभूमि पर -युद्धभूमि पर नहीं - शिशुपाल जैसे एक आर्य राजा का वध अपने सुदर्शन चक्र से किया है । कौन कह सकता है कि श्रीकृष्ण ने पाप किया है । श्रीकृष्ण ने युद्ध में और दूसरी तरह से भी अनेक अहंमन्य और प्रतिष्ठित लोगों की हत्या विश्व के कल्याण के लिए की है । और गीता उपदेश में अपने ( अधर्मी ) बान्धवों की हत्या करने के लिए बार - बार कह कर अन्त में ( युद्ध में ) प्रवृत्त किया है ।
पाप और पुण्य मनुष्य के कृत्य में नहीं , मनुष्य के मन में होता है । दुष्टों को दान देना पुण्य नहीं समझा जाता । वह अधर्म है । एक सीता देवी के कारण रामायण की कथा बन गयी , एक द्रोपदी के कारण महाभारत का इतिहास निर्माण हुआ ।
सहस्त्रावधी स्त्रियों का शील लुटा जा रहा था और ऐसा करने वाले राक्षसों को हर तरह से सहायता करने के यत्न हो रहे थे । ऐसी अवस्था में अपने प्राण के भय से या जन निन्दा के डर से कुछ भी न करना मुझसे नहीं हुआ । सहस्त्रावधी रमणियों के आशिर्वाद भी मेरे पीछे है ।
मेरे बलिदान मेरे प्रिय मातृभूमि के चरणों पर है । अपना एक कुटुम्ब या और कुछ कुटुम्बियों के दृष्टि से हानि अवश्य हो गयी । लेकिन मेरे दृष्टि के सामने छिन्न - भिन्न मन्दिर , कटे हुए मस्तकों की राशि , बालकों की क्रुर हत्या , रमणीयों की विडंबना हर घडी देखने में आती थी । आततायी और अनाचारी लोगों को मिलने वाला सहाय्य तोडना मैने अपना कर्तव्य समझा ।
मेरा मन शुद्ध है । मेरी भावना अत्यन्त शुद्ध थी । कहने वाले लाख तरह से कहेंगे तो भी एक क्षण के लिए भी मेरा मन अस्वस्थ नहीं हुआ । अगर स्वर्ग होगा तो मेरा स्थान उसमें निश्चित है । उस वास्ते मुझे कोई विशेष प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है ।
अगर मोक्ष होगा तो मोक्ष की मनीषा मैं करता हूँ ।
दया मांगकर अपने जीवन की भीख लेना मुझे जरा भी पसंद नहीं था । और आज की सरकार को मेरा धन्यवाद है कि उन्होंने दया के रूप में मेरा वध नहीं किया । दया की भिक्षा से जिन्दा रहना यही मैं असली मृत्यु समझता था । मृत्यु दंड देने वाले में मुझे मारने की शक्ति नहीं है । मेरा बलिदान मेरी मातृभूमि अत्यन्त प्रेम से स्वीकार करेंगी ।
मृत्यु मेरे सामने आया नहीं । मैं मृत्यु के सामने खडा हो गया हूँ । मैं उनके तरफ सुहास्य वदन से देख रहा हूँ और वह भी मुझे एक मित्र के नाते से हस्तांदोलन करता है ।
जातस्यहि धृवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येथे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
भगवदगीता में तो जीवन और मृत्यु की समस्या का विवेचन श्लोक - श्लोकों में भरा हुआ है । मृत्यु में ज्ञानी मनुष्य को शोक विह्ल करने की शक्ति नहीं है ।
मेरे शरीर का नाश होगा पर मैं आपके साथ हूँ । आसिंधु - सिंधु भारतवर्ष को पूरी तरह से स्वतंत्र करने का मेरा ध्येय - स्वप्न मेरे शरीर की मृत्यु होने से मर जाये यह असम्भव है ।
अधिक लिखने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है । सरकार ने आपको मुझसे मिलने की अंतिम स्वीकृति नहीं दी । सरकार से किसी भी तरह की अपेक्षा नहीं रखते हुए भी वह कहना ही पडेगा कि अपनी सरकार किस तरह से मानवता के तत्व को अपना रही है ।
मेरे मित्र गण और चि. दत्ता , गोविंद , गोपाल आपको कभी भी अंतर नहीं देंगें ।
चि. अप्पा के साथ और बातचीत हो जायेगी । वो आपको सब वृत्त निवेदन करेंगा ।
इस देश में लाखों मनुष्य ऐसे है कि जिनके नेत्र से इस बलिदान से अश्रु बहेंगे । वह लोग आपके दुःख में सहभागी हैं । आप आपको स्वतः को ईश्वर के निष्ठा के बल पर अवश्य संभालेंगे इसमें संदेह नहीं ।
अखण्ड भारत अमर रहे ।
वन्दे मातरम् ।
आपके चरणों को सहस्त्रशः प्रणाम
आपका विनम्र
नाथूराम वि. गोडसे
अंबाला दिनांक 12 - 11 - 49
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