Sunday, December 6, 2009

छह दिसंबर का सच

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    • लिब्रहान आयोग की रपट का अध्ययन करने के बाद यही लगता है कि यह रपट तत्व की दृष्टि से भी कमजोर है और इसमें तथ्य भी कम हैं। इस रपट को तैयार करने वालों ने जो तथ्य जुटाए भी हैं उसे अपने पूर्वाग्रहों के साथ प्रस्तुत किया है।
    • दूसरी तरफ आयोग को कांशीराम का वह बयान याद नहीं आता जिसमें उन्होंने कहा था कि राम जन्म भूमि पर तो शौचालय बना देना चाहिए। आयोग ने कम्युनिस्टों द्वारा उस समय की जा रही जहरीली टिप्पणियों की भी अनदेखी की।
    • आयोग ने कहा है कि किशोर कारसेवकों का एक जत्था सबसे पहले कूदा था। आयोग की अगंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सत्रह साल की जाच के बाद भी वह यह पता नहीं लगा पाया कि वे किशोर कौन थे?
    • उसने मेरा नाम भी इस सूची में डाल दिया है, जबकि मुझसे कभी कोई पूछताछ नहीं की। घटना हुई 6 दिसंबर 1992 को और मैं अप्रैल 1992 से लेकर अप्रैल 1993 तक तमिलनाडु में संघ का काम देख रहा था। हमसे कई गुना ज्यादा सक्रिय तो बूटा सिंह थे। उनका नाम आयोग ने नहीं दिया। इसके अलावा राजीव गाधी का नाम देना भी आयोग भूल गया। याद रहे कि 1991 में राजीव गाधी ने चुनाव प्रचार की शुरुआत आयोध्या से की थी। ताला भी उन्होंने ही खुलवाया था। इसलिए असली दोषी तो उन्हें माना जाना चाहिए, पर आयोग इन तथ्यों से जानबूझ कर गाफिल बना रहा।
    • आयोग ने अपनी रपट में कई बातों का उल्लेख किया है, लेकिन 1990 का विवरण नहीं दिया। अयोध्या में 30 अक्टूबर 1990 को भी कारसेवा हुई थी। उस वक्त के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि ढाचे पर परिंदा पर नहीं मार सकता। ऐसे बयानों के जरिए हिंदू समाज की भावनाओं के साथ किस तरह खिलवाड़ किया गया, इसका कोई विवरण आयोग ने नहीं दिया है। जवाब तो इस सवाल का ढूंढा जाना चाहिए कि आखिर 6 दिसंबर की घटना हुई ही क्यों? 6 दिसंबर की घटना न जरूरी थी और न ही यह पूर्व नियोजित थी। इस घटना को सत्ता-व्यवस्था द्वारा दबाई गई भावनाओं के उभार का नतीजा कहा जाएगा।
    • जो भी वहा हुआ न तो उसकी सराहना की जा सकती है और न ही आलोचना की जा सकती है। 6 दिसंबर को न तो शौर्य दिवस माना जा सकता है और न ही कलंक दिवस। अगर शौर्य दिवस ही मानना हो तो 30 अक्टूबर 1990 को मानाया जाना चाहिए। उस दिन मुलायम सिंह की धमकियों के बावजूद अयोध्या में कारसेवा हुई थी।
    • 6 दिसंबर की घटना ने बड़ा गंभीर और गहरा संदेश दिया है, बशर्ते उसे कोई समझना चाहे। भारतीय राजनीति का अल्पसंख्यकवाद ऐसी घटनाओं में बदल कर सामने आता रहेगा। 6 दिसंबर की घटना नौकरशाही द्वारा लोगों की भावनाओं को नहीं समझ पाने का नतीजा है, क्योंकि नौकरशाही ने वक्त के तकाजे के हिसाब से उस समय के भावनात्मक उभार से निपटने की कोशिश नहीं की। इसके अलावा न्यायपालिका द्वारा की जा रही गैर-जरूरी देरी ने भी लोगों के मन में आक्रोश भरने का काम किया। सुनवाई की तारीख 2 दिसंबर से बढ़ाकर 11 दिसंबर सिर्फ इसलिए कर दी गई कि जजों की छुट्टी थी और वे उसमें कोई कटौती नहीं करना चाहते थे। वे अपनी छुट्टी के आगे अयोध्या में एकत्रित बड़े जनसमूह की भावनाओं को समझने के लिए तैयार नहीं थे।
    • [केएन गोविंदाचार्य : लेखक जाने-माने राजनीतिक विचारक हैं]

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