Monday, February 7, 2011

क्या किसी देश की जनता लाखों लोगों के हत्यारे की फांसी के खिलाफ सड़कों पर आ सकती है? पूरी आशा है कि अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो आपका जवाब होगा-देश के गद्दारों को फांसी पर ही लटकाना चाहिए?

क्या किसी देश की जनता लाखों लोगों के हत्यारे की फांसी के खिलाफ सड़कों पर आ सकती है? पूरी आशा है कि अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो आपका जवाब होगा-देश के गद्दारों को फांसी पर ही लटकाना चाहिए?: "
देश के दुश्मनों (अफजल, कसाब आदि) को फांसी देने में इतनी देर क्यों?

देश के दुश्मनों (अफजल, कसाब आदि) को फांसी देने में इतनी देर क्यों? इन्हें तुरंत फांसी पर लटकाया जाए, लेकिन नहीं आए। ये लोग तब भी सड़कों पर नहीं उतरे जब पूरी कश्मीर घाटी को हिंदुओं के खून से रंग दिया गया, उन्हें उनकी संपत्ति से बेदखल कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। अब तक कश्मीर में करीब २००० से अधिक हिंदुओं की इस्लामी आतंकी हत्या कर चुके हैं। एक सीधा-सा सवाल आपसे पूछता हूं क्या देश के शत्रु को फांसी पर लटकाने से देश की स्थिति बिगड़ सकती है? क्या किसी देश की जनता लाखों लोगों के हत्यारे की फांसी के खिलाफ सड़कों पर आ सकती है? पूरी आशा है कि अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो आपका जवाब होगा-देश के गद्दारों को फांसी पर ही लटकाना चाहिए? लेकिन आपकी आस्थाएं इस देश से नहीं जुड़ी तो मैं आपकी प्रतिक्रिया का सहज अनुमान लगाया जा सकता है एक खानदान है इस देश में जिसके पुरुखों ने हमेशा देश विरोधी कारनामों को ही अंजाम दिया। देश में सांप्रदायिकता कैसे भड़के, देश खण्ड-खण्ड कैसे हो? इसके लिए खूब षड्यंत्र किया। उन आस्तीन के सांपों की पैदाइश भी आज उसी रास्ते पर रेंग रहे हैं। मैं बात कर रहा हूं कश्मीर के अब्दुला खानदान की। शेख अब्दुल्ला और फारूख अब्दुल्ला के शासन काल में कश्मीर की कैसी स्थितियां रही सब वाकिफ हैं, कितने कश्मीरी पंडितों को बलात धर्मातरित किया गया, कितनों को उनके घर से बेघर किया गया सब बखूबी जानते हैं। बताने की जरूरत नहीं। इसी खानदान का लग उठेगा उमर अब्दुल्ला कहता है कि - ''अफजल (देश का दुश्मन, संसद पर हमला और सुरक्षा में तैनात जवानों का हत्यारा) को फांसी न दो, वरना कश्मीर सुऔर लोग विरोध में सड़कों पर उतर आएंगे। मकबूल बट्ट की फांसी के बाद कश्मीर में जो आग लगी थी। वह अफजल की फांसी के बाद और भड़क उठेगी।'
>>>>>बहुत दिनों बाद भारत भक्तों को सुकून मिला जब कांग्रेस के पंजे में दबी अफजल की फाइल बाहर निकली और उसकी फांसी की चर्चाएं तेज होने लगीं। लेकिन, कुछ देशद्रोहियों को यह खबर सुनकर बड़ी पीड़ा हुई। कुछ तो उसे बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं और बहुतेरे अभी रणनीति बना रहे हैं, मुझे विश्वास (किसी के विश्वास बरसों में जमा होता है) है वे भी कूदेंगे जरूर। >>>>>मैं पूछता हूं क्यों उतरेंगे लोग सड़कों पर एक देशद्रोही के लिए ? क्या यह समझा जाए कि देश के मुसलमान देश के दुश्मनों के साथ हैं? ये कौम इस तरह की हरकत करके जता देती है कि इन पर विश्वास न किया जाए। अगर इन्हें इस देश के बहुसंख्यकों के दिल में जगह पाना है और विश्वास कायम करना है तो इस तरह की घटनाओं का विरोध करना चाहिए, जैसा कि ये कभी नहीं करते। इन लोगों को तो इस बात के लिए सड़क पर आना चाहिए था कि देश के दुश्मनों (अफजल, कसाब आदि) को फांसी देने में इतनी देर क्यों? इन्हें तुरंत फांसी पर लटकाया जाए, लेकिन नहीं आए। ये लोग तब भी सड़कों पर नहीं उतरे जब पूरी कश्मीर घाटी को हिंदुओं के खून से रंग दिया गया, उन्हें उनकी संपत्ति से बेदखल कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। अब तक कश्मीर में करीब २००० से अधिक हिंदुओं की इस्लामी आतंकी हत्या कर चुके हैं। यह दर्द कई लोगों को सालता रहता है। कश्मीर के इस खूनी खेल में अपने पिता को खो चुके बॉलीवुड के संजीदा अभिनेता संजय सूरी ने 'तहलका' के नीना रोले को दिए इंटरव्यू में कुछ इस तरह अपना दर्द बयां किया था- ''१९९० की एक मनहूस सुबह श्रीनगर में मेरे पिता को आतंकवादियों ने गोली मार दी थी। आखिर उनकी गलती क्या थी? यही कि वो कश्मीर में रह रहे एक हिंदू थे।' उन्होंने यह भीहा कि कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन के बाद यहां एक ही धर्म बचा है। >>>>>क्यों करें इस देश के मुसलमानों पर विश्वास- रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी अपनी प्रसिद्ध किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है - ''इस देश के मुसलमानों में इस्लाम के मौलिक स्वभाव, गुण और उसके ऐतिहासिक महत्व का ज्ञान बहुत ही छिछला रहा है। भारत में मुसलमानों का अत्याचार इतना भयानक रहा है कि सारे-संसार के इतिहास में उसका कोई जोड़ नहीं मिलता। इन अत्याचारों के कारण हिन्दुओं के हृदय में इस्लाम के प्रति जो घृणा उत्पन्न हुई, उसके निशान अभी तक बाकी हैं?' जरा इनके व्यवहार पर नजर डालें तो-अपनी छवि को ठीक करने के लिए देश के मुसलमानों को देशद्रोही घटनाओं में संलिप्त मुसलमानों का तीव्र विरोध करना चाहिए था, लेकिन ये उल्टे काम करते रहे। - अफजल ने जब संसद पर हमला किया और कसाब ने होटल ताज पर तो ये लोग सड़कों पर विरोध करने नहीं आए, हजारों बेगुनाहों के हत्यारों को मौत की सजा हो ऐसी मांग इन्होंने नहीं की। लेकिन, उन्हें बचाने के लिए ये कश्मीर जला देंगे। (मतलब शेष बचे कश्मीरी पंडितों की हत्या कर देंगे) - जब कहीं मीलों दूर किसी अखबार में किसी मोहम्मद का कार्टून छपा तो इस कौम ने देश-दुनिया और भारत के हर शहर गली-मोहल्ले में हल्ला मचाया। देश के एक पत्रकार आलोक तोमर ने जब इस कार्टून को छाप दिया तो उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया। वहीं जब इसी कौम के एक भौंड़े कलाकार एमएफ हुसैन ने हिंदु देवी-देवताओं और भारतमाता का नग्न चित्र बनाया तो ये बिलों में दुबके रहे और हुसैन अपनी करतूतों से बाज नहीं आया, उसे किसी ने जेल नहीं भेजा। उस समय देश के मुसलमान सड़कों पर उतरते तो लाखों दिलों में घर बनाते। ये तो सड़कों पर उतरे भी तो हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए। - एक ओर हिन्दू धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू शंकराचार्य को देश के सबसे बड़े त्योहार दीपोत्सव पर उठाकर सींखचों के पीछे ढकेल दिया वहीं खुले मंच से 'मैं सबसे बड़ा आतंकवादी हूं, मुझे पकड़कर दिखाए कोईÓ कहने वाले का कोई बाल बांका नहीं कर सका। - बाल ठाकरे की टीका-टिप्पणी से भी नाराजगी जबकि मंत्री पद पर बैठे हाजी याकूब द्वारा किसी की हत्या कर उसका सिर काटकर लाने के आह्वान की भी अनदेखी। - नरेन्द्र मोदी के शासन में एक बच्चे का अपहरण भी राज्य की दुर्गति का प्रमाणिक उदाहरण, जबकि फारूख अब्दुल्ला के राज में दर्जनों सामूहिक नरसंहारों से भी कोई उद्वेलन नहीं। - आप ही बताएं क्या इस तरह के दो तरह के व्यवहार से सांप्रदायिक एकता कायम हो सकती है?
- क्या इस तरह की घटनाओं में शामिल रहने पर हिन्दू, मुसलमानों पर भरोसा करें?
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