जिस दिन हिना रब्बानी भारत की यात्रा पर दिल्ली पधारीं, उन्होंने उसी दिन कश्मीर के सभी अलगाववादी हुर्रियत (Hurriyat Conference) नेताओं जैसे, सैयद अली शाह गिलानी, मीरवायज़ उमर फ़ारुक, अब्दुल गनी बट, आगा सईद बडगामी और बिलाल लोन से मुलाकात की। किस जगह? पाकिस्तान के दूतावास में…। सामान्य सी “प्रोटोकॉल” और कूटनीतिक समझ रखने वाला निचले स्तर का अफ़सर भी समझ सकता है कि इसके गहरे निहितार्थ क्या हैं। प्रोटोकॉल के अनुसार पाकिस्तान के विदेश मंत्री को अपनी “आधिकारिक” भारत यात्रा पर सबसे पहले विदेश मंत्रालय के उच्चाधिकारियों, विदेश मंत्री या किसी राज्य के मुख्यमंत्री से ही मुलाकात करना चाहिए… (व्यक्तिगत यात्रा हो तो वे किसी से भी मिल सकते हैं), लेकिन ऐसा नहीं हुआ, भारत सरकार की “औकात” सरेआम उछालने के मकसद से हिना रब्बानी ने जानबूझकर हुर्रियत नेताओं से पाकिस्तान के दूतावास में मुलाकात की, जबकि यदि उन्हें कश्मीर की वाकई इतनी ही चिंता थी तो उन्हें उमर अब्दुल्ला से मिलना चाहिए था, अगले दिन एसएम कृष्णा से आधिकारिक चर्चा होनी ही थी, फ़िर सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं से मिलने की क्या तुक है?
इसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि हुर्रियत के इन सभी नेताओं में से अधिकतर “सरकार की निगाह” में “नज़रबन्द” हैं, तो फ़िर ये लोग श्रीनगर से दिल्ली कैसे पहुँचे? क्या सरकार इस बारे में जानती थी कि ये लोग क्यों और किससे मिलने आ रहे हैं? यदि जानती थी तब तो यह बेहद गम्भीर बात है क्योंकि इससे साबित होता है कि “प्रशासनिक मशीनरी” में ऐसे तत्व खुलेआम घुस आए हैं जो कश्मीर को पाकिस्तान के सामने पेश करने के लिये मरे जा रहे हैं, और यदि सरकार इस बारे में कुछ भी नहीं जानती थी, तब तो यह जम्मू-कश्मीर और केन्द्र सरकार की सरासर नाकामी और निकम्मापन है कि “नज़रबन्द” नेता दिल्ली पहुँच जाएं और पाकिस्तान के विदेश मंत्री से मुलाकात भी कर लें…। क्या यह देश की सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं है कि सुरक्षा एजेंसियों को पता लगे बिना अलगाववादी नेता आराम से दिल्ली आते हैं और सरेआम सरकार को तमाचा जड़कर चले गये? भारत सरकार और आम जनता के प्रतिनिधि विदेश मंत्री या उमर अब्दुल्ला हैं या हुर्रियत वाले? और फ़िर भी सरकार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें-हें करते बैठी रही? ऐसा क्यों… एक सवाल एसएम कृष्णा जी से पूछने को जी चाहता है, कि क्या भारत के विदेशमंत्री की इतनी “हिम्मत” है कि वह पेइचिंग में सरकारी मेहमान बनकर वहीं पर “दलाई लामा” से मुलाकात कर ले?
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तात्पर्य यह है कि भारत के सत्ता संस्थान तथा मीडिया में ऐसे तत्व बहुतायत में भरा गये हैं, जिन्हें अब “देश की एकता और अखण्डता” नामक अवधारणा में कोई विश्वास नहीं है। सत्ता के करीब और “प्रियकर” यह “खास-तत्व”, अरुंधती को आज़ादी(?) देंगे, हुर्रियत को आज़ादी देंगे, कोबाद घांदी तथा बिनायक सेन के साथ नरमी से पेश आएंगे, नगालैण्ड और मणिपुर के उग्रवादियों से चर्चाएं करेंगे… सभी अलगाववादियों के सामने “लाल कालीन” बिछाएंगे… उनके सामने “सत्ता की ताकत” और “राष्ट्र का स्वाभिमान” कभी नहीं दिखाएंगे। परन्तु जैसे ही बाबा रामदेव या अण्णा हजारे कोई उचित माँग करेंगे, तो ये लोग तत्काल “सत्ता का नंगा नाच” दिखाने लगेंगे।