Friday, January 8, 2010

कश्मीर समस्या का मनोविज्ञान

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    • धर्म साम्राज्य भौगोलिक बाध्यताओं केसम्मुख असहाय हो जाते हैं। भूगोल ही संस्कृतियों का मुख्य कर्ता होता है। कश्मीर के रास्ते में हिंदूकुश पड़ता है। खैबर और बोलन दर्र्रो से आ रहे धर्म साम्राज्य निर्माताओं ने कोशिशें तो कीं, लेकिन वे इलाके का भाग्य नहीं बदल सके। चूंकि अब कश्मीर बड़ी समस्या मान ली गई है तो समाधान आसान कैसे हो सकता है? किसी जमाने में स्कर्वी नाम की भयानक बीमारी से बड़ी संख्या में समुद्री यात्री मरा करते थे। एक मामूली डाक्टर ने बताया कि यह बीमारी नींबू का रस पीने से ठीक हो जाती है। ठीक होने भी लगी, लेकिन इतनी भयंकर बीमारी के इतने आसान इलाज की बात स्वीकार करने में ही सौ साल लगे। आज इस बीमारी के बारे में सुना भी नहीं जाता। एक सवाल की रोशनी में कश्मीर की समस्या देखी जाए। अगर कश्मीर मतांतरित न हुआ होता, हिंदू या बौद्ध ही बना रहता तो क्या आज कश्मीर समस्या होती?
    • जो बात जम्मू के लिए कोई समस्या नहीं वह कश्मीर घाटी के चालीस लाख लोगों के लिए समस्या क्यों है? यह मूलत: एक मनोवैज्ञानिक समस्या है 'हिंदू भारत' के साथ रहने की। वे हमारे 15 करोड़ मुसलमानों से अपने को अलग समझते हैं। कश्मीर घाटी के लोगों को अलगाववादी मानसिकता के हवाले कर दिया गया है। यह मनोविज्ञान जनमत संग्रह के अनायास स्वीकार से पैदा हुआ है। इतिहास में कहीं भी और कभी भी वोट देकर राष्ट्रीयताओं पर निर्णय नहीं हुआ।
    • जब से पाकिस्तान परमाणु हथियारों से संपन्न हुआ है, हम उसी स्तर के देश रह गए हैं। चीन और भारत यदि बराबर के शक्तिशाली देश होते तो निश्चित ही तिब्बत आज चीन की एक बड़ी समस्या के रूप में होता। हमारी समस्या कश्मीर नहीं, बल्कि पाकिस्तान है।
    • [आर. विक्रम सिंह: लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं]


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