http://hindi.lokmanch.com/2011/04/09/anna-hazare-question-left-behind
भारत के लोगों को तो जैसे अपना आक्रोश व्यक्त करने और उल्लास मनाने का कोई अवसर भर चाहिये। पिछले पाँच दिनों से सारा देश जब जंतर मंतर को ट्यूनीशिया और मिस्र की पुनरावृत्ति के एक चौक के रूप में कल्पना कर अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा था तो आज उसी स्थान पर लोकतंत्र की विजय का पर्व मनाया जा रहा है। हालाँकि लेखक को अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि अन्ना हजारे ने किस बात के लिये अनशन किया और किस बात से संतुष्ट होकर उसे समाप्त भी कर दिया उससे भी बडी उलझन इस बात को लेकर है कि आखिर भारत की जनता के स्वभाव की कैसी व्याख्या की जाये। क्रिकेट विश्वकप को या फिर आई पी एल हो या फिर अन्ना हजारे का अनशन हो आखिर सब कुछ यहाँ तमाशा बन कर क्यों रह जाता है? आखिर जनता अपने आक्रोश या उल्लास को कोई तार्किक परिणाम देने से पहले ही फुस्स क्यों हो जाती है या फिर उसने बहुत कम में संतोष करना क्यों सीख लिया है?
मुम्बई में हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद जनता का आक्रोश मोमबत्ती और मशाल के द्वारा निकल गया और उसके बाद जनता जिसका सदस्य मैं भी हूँ यह जानने को भी उत्सुक नहीं हैं कि मुम्बई आक्रमण के दोषियों को सजा दिलाने के लिये हमारी सरकार कितना प्रयास कर पाई। देश की ओर से डोजियर पर डोजियर पाकिस्तान को दिये जा रहे हैं और उसके जबाब में क्या हो रहा है हमें न तो जानने की उत्सुकता है और न ही जिज्ञासा। इसी प्रकार भारत के प्रधानमंत्री ने क्रिकेट विश्व कप के सेमीफाइनल मैच को देखने के लिये पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री को बुलावा भेजा तो हमें यह सोचने का अवसर भी नहीं था कि क्रिकेट अपनी जगह है और कूटनीति और राजनीति अपनी जगह। हम इस पर भी ताली बजाने लगे और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और क्रिकेट टीम के स्वागत में लग गये हमें अपनी सरकार और प्रधानमन्त्री से यह पूछने का अवसर ही नहीं था कि आखिर मुम्बई आक्रमणकारियों के बारे में ठोस कदम उठाये बिना पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री को किस मुँह से हम देश भ्रमण का निमंत्रण दे रहे हैं। हम जनता के रूप में यह पूछ ही नहीं सकते क्योंकि हमें तो बस ताली बजाने का मौका भर चाहिये।
आक्रोश व्यक्त करने, उल्लास मनाने और ताली बजाने की अपनी व्यग्रता का दर्शन हमें एक बार फिर जन्तर मन्तर पर हुआ जब देश के टेलीविजन ने एक अनशन को रियलिटी शो बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया।
बिना यह जाने कि अनशन क्यों हो रहा है? इस माँग से भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई को कितनी शक्ति मिलेगी या फिर जो लोग अनशन कर रहे हैं उनकी मंशा या फिर उनकी पृष्ठभूमि क्या है? आरम्भ हो गया एक बार फिर आक्रोश व्यक्त करने और तत्काल उल्लास मनाने का दौर।
अन्ना हजारे द्वारा जंतर मंतर पर जो अनशन किया गया उसमें पूरे पाँच दिन जो घटनाक्रम रहा उसे फिर से याद करना अति आवश्यक है। हमारी उल्लास मनाने , आक्रोश व्यक्त करने और मोमबत्ती के साथ मार्च करने की आदत हमें इतना अस्त व्यस्त कर देती है कि अनेक बातें विस्मृत हो जाती हैं। जिस दिन अन्ना हजारे पहले दिन आमरण अनशन पर बैठे उन्होंने सायंकाल मीडिया से कहा कि उन्होंने अनशन पर बैठने से पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गाँधी को अनेक पत्र लिखे लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया और यह बात कहते हुई उनका आक्रोश देखने लायक था । इसके बाद दूसरे दिन जब उनके प्रतिनिधियों और सरकार के मध्य बातचीत आरम्भ हुई तो भी उनकी ओर से कुछ बातें कही गयीं जिनमें से एक प्रमुख बात यह थी कि कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य प्रणव मुखर्जी जनलोकपाल बिल के लिये बनने वाली संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे। दो दिन के अनशन के दौरान न केवल अन्ना हजारे ने वरन उनके सहयोगियों ने भी कैबिनेट के अनेपक सदस्यों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये और एक सदस्य को तो कीमत भी चुकानी पडी लेकिन अनशन के तीसरे दिन काँग्रेस की राजमाता द्वारा अन्ना हजारे को लिखे गये पत्र के बाद उनके स्वर पूरी तरह बदले हुए नजर आये। तीन दिन पूर्व जिसके ऊपर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया जा रहा था कि उन्होंने जनलोकपाल बिल के बारे में में लिखे गये उनके पत्रों का उत्तर तक नहीं दिया था उनके प्रति सार्वजनिक रूप से आभार व्यक्त किया जाने लगा। इसके बाद पूरे अभियान में देश में हो रहे घोटालों , घपलों और इन पर सरकार की निष्क्रियता पर चर्चा होनी बंद हो गयी और सारे देश का ध्यान इस बात पर टिका दिया गया कि समिति की घोषणा के लिये सरकारी आदेश की प्रकिया क्या होगी? क्या इसी तकनीकी बात के लिये देश विदेश में लोग अन्ना हजारे के प्रति अपना समर्थन व्यक्त कर रहे थे?
इसके अतिरिक्त कुछ और प्रश्न भी है? यह आंदोलन पिछले पाँच दिनों में जनांदोलन बन गया और अन्ना हजारे ने जनलोकपाल बिल को भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त अस्त्र बताया तो फिर इस बिल को ड्राफ्ट करने के लिये जो समिति बनी उसमें नागरिकों का प्रतिनिधि करने वाले जो लोग हैं उनमें अध्यक्ष तो पिता और सदस्य पुत्र ही बन गये। यही प्रश्न अत्यंत मह्त्व का है। इसलिये क्योंकि हमारी जनता को तो अपना निरर्थक आक्रोश व्यक्त करने और फिर कम में ही संतोष कर उल्लास मनाने के लिये अवसर भर चाहिये और इस प्रकिया में हम सदैव उन मुद्दों पर ध्यान ही नहीं देते जो वास्तव में हमारे लिये कहीं अधिक मह्त्व के होते हैं और हमारे भविष्य से जुडे होते हैं। आज सबसे बडी बात यह है कि हमने यह सोचना छोड दिया है कि हमारा नेतृत्व जो कर रहा है उसे जवाबदेह बनाने के लिये हम अपनी क्या तैयारी रखें इसके स्थान पर हम अतिभावनाशील होकर अपनी समस्याओं, चुनौतियों और प्रश्नों को किसी और के हाथ में सौंपकर इस विश्वास में जीने लगते हैं कि अब सब कुछ ठीक हो जायेगा और फिर तैयार हो जाते हैं अगली बार कुण्ठित होकर एक नये अवसर की तलाश में जब हम अपना निरर्थक आक्रोश व्यक्त कर उल्लास मना सकें। आज कुछ और प्रश्न उभरे हैं जिनका उत्तर हमें स्वयं से माँगना होगा। इनमें से एक गम्भीर प्रश्न है कि आखिर कब हमारी जनता और समाज गम्भीरता पूर्वक मुद्दों को समझकर सही गलत की पहचान कर सकेगा और सतही आक्रोश और उल्लास के स्थान पर किसी गम्भीर और सार्थक समाधान के लिये सक्रिय हो सकेगा।
आज जिस प्रकार एक सरकारी कागज भर प्राप्त कर जंतर मंतर पर सतही उल्लास का दृश्य प्रस्तुत हुआ है उसने एक बार फिर मुद्दों को गम्भीरतापूर्वक किसी तार्किक परिणति पर ले जा सकने की हमारी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इस बात का भय है कि कहीं लोग यह न मान बैठें कि लोकपाल बिल आ जाने भर से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा और सरकार इस बिल को पारित कर न केवल अपनी पीठ थपथपा लेगी वरन जनता से अपेक्षा भी करेगी कि इस सरकार में हुए घोटालों के पाप से उसे मुक्त कर दिया जाये। अन्ना हजारे के इस पूरे अभियान में उनकी नीयत पर कोई प्रश्न खडा किये बिना भी कुछ ऐसे प्रश्न अवश्य हैं जो मन में उभर रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह लडाई किसी कानून के बनने तक सीमित नहीं हो सकती इसकी जडें काफी गहरी हैं और उन जडों को खोदकर उनमें मठ्ठा डालना ही पडेगा।
अन्ना हजारे के अनशन के दौरान जिस प्रकार इस अभियान को नेता विरोधी बनाने का प्रयास हुआ और सिविल सोसाइटी के नाम पर बालीवुड और कुछ विशेष मानसिकता के गैर सरकारी संगठनों के लोगों ने इसपर एकाधिकार स्थापित करने का प्रयास किया वह खतरनाक संकेत है। आज देश में प्रधानमन्त्री कार्यालय के समानांतर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को खडा किया गया है और इसके बाद इस परिषद से जुडे गैर सरकारी संगठनों को देश के भाग्यविधाता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास न केवल खतरनाक वरन दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसी घटनाओं के होने के पीछे सबसे बडा कारण एक असहाय, लुंज पुंज, भ्रमित और नेतृत्वविहीन विपक्ष है जो स्वतंन्त्रता आंदोलन के समय की गोपाल कृष्ण गोखले की काँग्रेस की भाँति देश की जनता के मुद्दों पर राजनीति करने के स्थान पर वकालती पद्धति से राजनीति कर रहा है।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद कुछ ऐसे प्रश्न खडे हुए हैं जिनका तत्काल उत्तर हमें ढूँढना होगा। देश के हित में एक सशक्त राजनीतिक नेतृत्व की संस्कृति को अलोकप्रिय होने से रोकना होगा और इसके लिये राजनीतिक दलों को अपने अंदर यथोचित सुधार करना होगा ताकि जनता का उनमें विश्वास बना रहे। देश की राष्ट्रवादी शक्तियों को साथ आकर यथाशीघ्र देश में एक बडा और व्यापक जनांदोलन चलाना होगा ताकि देश की यथास्थितिवादी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो सके। देश के विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे जनाकाँक्षा अभिव्यक्ति के आंदोलनों को एक समान छतरी के नीचे लाकर नयी राष्ट्रीय राजनीतिक संस्कृति विकसित करनी होगी। कुछ राष्ट्रवादी संगठनों को अपना अहंकार और मोह त्याग कर कुछ कडे कदम उठाने होंगे और नवोदित नेतृत्व स्वीकार करना होगा ताकि राष्ट्रधर्म का पालन हो सके। जनता को अधिक गम्भीर , स्थिर और परिपक्व होकर सजग होना होगा ताकि आसुरी माया के छल को परखा जा सके।