ये कैसी मंदी..??
भारत में झूठ तथा फरेब सबसे ज्यादा है
इसी प्रकार आप विदेशी नामचीन अखबारों को उठाकर देखिए...वे विज्ञापनों के लिए उस प्रकार से पागल नहीं दिखेंगे जैसे ये हिन्दी या भारतीय अंग्रेजी के अखबार दिखते हैं। विदेशी अखबारों में पढ़ने के लिए बहुत कुछ होगा जबकि कीमत कम होगी। वहीं हमारे यहाँ मामला उल्टा है। अखबारों को अब आप कुछ ही मिनट में फैंक देते हैं।
हमारे देश में खबरों के लिए अखबार शुरू हुए थे और समाजसेवा के लिए स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ या कहें गैर सरकारी संगठन) लेकिन ये दोनों ही अपने रास्ते से भटक गए। आज अखबार खबरों को छोड़कर विज्ञापन के पीछे लगे हुए हैं और एनजीओ समाजसेवा को छोड़कर फंड कलेक्टिंग के पीछे लगी हुई है। कम से कम भारत में तो ये अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। आज कोई अखबार खुलता है तो पहले वहाँ विज्ञापनों की जुगाड़ की बात होती है। पन्ने विज्ञापनों से भरे होते हैं और बची जगह पर खबरें लग जाती हैं। हद तो तब है, जब उसके बाद भी मंदी की बातें होती हैं।
इसी प्रकार आप विदेशी नामचीन अखबारों को उठाकर देखिए...वे विज्ञापनों के लिए उस प्रकार से पागल नहीं दिखेंगे जैसे ये हिन्दी या भारतीय अंग्रेजी के अखबार दिखते हैं। विदेशी अखबारों में पढ़ने के लिए बहुत कुछ होगा जबकि कीमत कम होगी। वहीं हमारे यहाँ मामला उल्टा है। अखबारों को अब आप कुछ ही मिनट में फैंक देते हैं।
हमारे देश में खबरों के लिए अखबार शुरू हुए थे और समाजसेवा के लिए स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ या कहें गैर सरकारी संगठन) लेकिन ये दोनों ही अपने रास्ते से भटक गए। आज अखबार खबरों को छोड़कर विज्ञापन के पीछे लगे हुए हैं और एनजीओ समाजसेवा को छोड़कर फंड कलेक्टिंग के पीछे लगी हुई है। कम से कम भारत में तो ये अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। आज कोई अखबार खुलता है तो पहले वहाँ विज्ञापनों की जुगाड़ की बात होती है। पन्ने विज्ञापनों से भरे होते हैं और बची जगह पर खबरें लग जाती हैं। हद तो तब है, जब उसके बाद भी मंदी की बातें होती हैं।