Thursday, June 25, 2009

पुण्य प्रसून बाजपेयी: कैसे हुआ भाजपा का बंटाधार

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    • संघ का जोर संगठन के जरिये सामाजिक शुद्दीकरण के उस मिजाज को पकड़ना था, जिससे वोट डालने के साथ वैचारिक भागेदारी का सवाल भी वोटर में समाये। लेकिन भाजपा ने वोटर को सत्ता की मलायी से जोड़ने की राजनीतिक पहल न सिर्फ उम्मीदवारो के चयन को लेकर की बल्कि चुनावी घोषणापत्र से लेकर चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों को लुभाने की ही जोर-आजमाइश की।
    • भाजपा के भीतर गोविन्दाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से कल्य़ाण सिंह का कद बढ़ना देखा गया और उत्तर प्रदेश में एक वक्त भाजपा की राजनीतिक सफलता को भी कल्याण सिंह से जोड़ा गया लेकिन वही कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद 1993 में जब पहली बार नागपुर आये थे तो संघ मुख्यालय में वह सिर्फ पांच मिनट ही रह पाये थे। इतनी छोटी मुलाकात के पीछे आरएसएस का ब्राह्माणवाद या दलित-पिछडा राजनीति को जगह ना देना भी माना गया।
    • सत्ता ने किस तरह भाजपा को सिमटाया है, इसका अंदाजा भाजपा के मुख्यमंत्रियो को देखकर भी लगाया जा सकता है । छत्तीसगढ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन्हें कोई पहचानाता नहीं था। लेकिन अब इन दोनो के अलावे दोनो राज्य में कोई और भाजपा नेता का नाम जुबान पर आता नहीं है। कमोवेश यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया की है और तमिलनाडु में येदुरप्पा की है । यानी दूसरी लाइन किसी नेता ने बनने ही नही दी। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने तो दूसरी-तीसरी किसी लकीर पर नेताओं को नहीं रखा है।
    • 2004 में हार के बावजूद बाजपेयी ने आडवाणी के लिये रास्ता नहीं खोला था। 2009 में आडवाणी हार के बावजूद किसी दूसरे के लिये रास्ता नहीं खोल रहे हैं। माना जाता है सरसंघचालक मोहन राव भागवत के लिये पिछले एक साल से सुदर्शन जी भी रास्ता नहीं खोल रहे थे ।

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