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- दीर्घकाल तक इस्लाम की आंधी से हिन्दुस्थान ने टक्कर ली है। इस प्रक्रिया में जहां एक ओर हिंदू समाज को मर्मांतक पीड़ा मिली और उसका सामाजिक एवं आर्थिक जीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया वहीं इस्लाम को भी हिंदुत्व के उदात्त विचारों ने अपने रंग में गहरे रंग देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। भक्ति आंदोलन को अगर इस रूप में देखें तो उस कालखण्ड में एक बार ऐसा लगने लगा था कि इस्लाम का असहिष्णु जीवन प्रवाह भक्ति की महान सुरसरिता में समाहित हो जाएगा।
- भक्ति को कभी कोई भेदभाव स्वीकार नहीं था। इसी के प्रभाव में आकर बहुत से मुसलमान भी हिंदू संतों के शिष्य बन गए और संतों के समान ही जीवन जीने लगे। मध्यकाल में हम देखें तो पाएंगे कि ऐसे हजारों मुस्लिम संत थे जिन्होंने हिंदुत्व के अमर तत्व को अपने इस्लाम मतावलंबियों के बीच बांटना शुरू कर दिया था। यहां हम कबीर, संत रज्जब, संत रोहल साहेब और संत शालबेग के अतिरिक्त ऐसे संतों की चर्चा करेंगे जिन्होंने भारतीय इस्लाम को एक नवीन चेहरा दिया।
- हिंदू भक्ति आंदोलन ने सामान्य मुस्लिमों से लेकर मुस्लिम सम्राटों तक के परिजनों को हिलाकर रख दिया। रहीम, अमीर खुसरो और दारा शिकोह इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और केवल पुरूष ही नहीं मुस्लिम शहजादियां भी भक्ति के रंग में रंग गईं। इसी कड़ी में औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसां बेगम तथा भतीजी ताज बेगम का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।
- यही कारण था कि इस्लाम के हिंदुत्व के साथ बढ़ते तादात्मीकरण ने कट्टरपंधी मुल्लाओँ की नींद हराम कर दी। मौलाना हाली ऐसे ही एक कट्टरपंथी मुसलमान थे जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम समन्वय के इस महान कार्य पर चिंता जताई। उन्होंने कहा-
वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।
यानी मौलाना हाली दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया।
मुस्लिम समाज़ पर हिंदू तथा मुस्लिम संतों की भगवद्भक्ति का इतना प्रभाव बढ़ता गया कि इस्लामी मौलवी लोगों को लगने लगा कि इस प्रकार तो हिंदुत्व इस्लाम को निगल जाएगा। इस कारण प्रतिक्रिया में आकर भारतीय मुसलमान संतों पर मौलवियों ने कुफ्र अर्थात नास्तिकता के फतवे ज़ारी कर दिये। - आज यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि यदि अंग्रेज़ भारत में न आए होते तो निर्मल भक्ति, प्रेम तथा संतों के पवित्र एवं त्यागमयी आचरण के दैवीय आकर्षण से करोड़ों मुसलमान अपने पुरखों की संस्कृति, धर्म और परंपरा से उसी भांति जुड़ जाते और आनन्द मानते जैसे एक बच्चा अपनी मां की गोदी में सुख का अनुभव करता है।
- लेखक: डॉ. कृष्णगोपाल
- कृष्णगोपालजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवन समर्पित प्रचारकों की टोली से जुड़े यशस्वी और मेधावी प्रचारक हैं।
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