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- Guest column - Vimarsh - LiveHindustan.com
- जातीय गणना में कई व्यावहारिक दिक्कतें हैं। 1931 के बाद जनगणना में जाति का जिक्र भी व्यवहारिक कारणों से ही बंद किया गया था। तब कई मामलों में यह पाया गया था कि लोग जिस जाति के होते थे अपने को उससे ऊंची जाति का बता देते थे। यही खतरा एक दूसरी तरह से आज भी दिखाई दे रहा है। चूंकि आज पूरी राजनीति जातीय वोट बैंक पर आधारित है, इसलिए बहुत सम्भव है कि अपनी-अपनी जातियों के बारे में संख्या बढ़ा चढ़ा कर पेश की जाएगी। 1881 की जनगणना में कुल 1885 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पहचान की गयी थी। इसके बावजूद 2001 की जनगणना में इन जातियों की संख्या 18748 से अधिक हो गयी। इनमें से कई के नाम, उपनाम गैर-दलित, आदिवासी जातियों के थे। 1931 के बाद पिछले 70 वर्ष में कई जातियों के नाम बदल गये हैं, कई नयी जातियां सामने आ गयी हैं, कई जातियां दूसरों से मिल गयी हैं या सामाजिक वरीयता में ऊपर-नीचे हो गयी हैं। साथ ही विभिन्न राज्यों में पिछड़े वर्गों की सूचियां भी भिन्न-भिन्न हैं। सबसे बड़ा खतरा जाति आधारित जनगणना को लेकर नहीं है, खतरा यह है कि इससे मिलें आंकड़ों को बाद में राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। बल्कि किया ही जाएगा। यह भी हो सकता है कि कुछ जातियों को अगर ये आंकडे अगर उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं दिखाई दिए तो वे इसे मानने से ही इनकार कर सकती हैं। ऐसे में जनगणना एक बेवजह राजनैतिक विवाद का कारण बन जाएगी। जबकि जनगणना इसके लिए होती नहीं है।
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