यहां जात का क्या काम - Here's what worked Breed - www.bhaskar.com
- डॉ वेदप्रताप वैदिक
- जनगणना में जाति गिनाने के पक्ष में अजीबो-गरीब तर्क दिए जा रहे हैं। पहला तर्क यह है कि जाति हिंदुस्तान की सच्चाई है। इसे आप स्वीकार क्यों नहीं करते? यह तर्क बहुत खोखला है क्योंकि इस देश में जाति ही नहीं, अन्य कई सच्चाइयां हैं। क्या हम उन सब सच्चाइयों को स्वीकार कर लें? जैसे भारत में हिंदुओं की संख्या सबसे ज्यादा है तो हम इसे हिंदू राष्ट्र घोषित क्यों न कर दें? भारत में भ्रष्टाचार पोर-पोर में बसा हुआ है तो हम भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय शिष्टाचार की मान्यता क्यों न दे दें? राजनीति का उद्देश्य वास्तविकताओं के सामने घुटने टेकना नहीं है, बल्कि उनको बदलना है।
- इसके बावजूद भारत में जात जिंदा है, इसमें शक नहीं। लेकिन वह राजनीति में जितनी जिंदा है, उतनी हमारे सामाजिक और शैक्षणिक जीवन में नहीं है। अस्पृश्यता काफी घटी है, सहभोज तो आम बात है और अंतरजातीय विवाह पर अब पहले जैसा तूफान नहीं उठता है। ज्यों-ज्यों शिक्षा और संपन्नता फैलती जा रही है, जात का असर मिटता जा रहा है, लेकिन जातिवादी नेताओं के लिए यही सबसे बड़ा खतरा है। वे अपने वोट बैंक को फेल नहीं होने देना चाहते। इसीलिए जनगणना में वे जात को जुड़वाने पर आमादा हैं। उनका अपने चरित्रबल, बुद्धिबल और सेवाबल पर से विश्वास उठ गया है। वे केवल अपने जातीय संख्या बल पर निर्भर होते चले जा रहे हैं। वे सवर्ण नेताओं की भद्दी कार्बन कॉपी बन गए हैं। वे देश के वंचितों के प्रति उतने ही निर्मम हैं, जितने कि सवर्ण नेतागण!
- जनगणना में जात को घुसाना सबसे बड़ा ‘मनुवाद’ है। हमारा संविधान जातिविहीन समाज का उद्घोष करता है, पर जो जात का जहर घोलने पर आमादा हैं, उनका आदर्श भारत का संविधान नहीं, ‘मनुस्मृति’ है। उनका जातिवाद उन्हें भस्मासुर बना देगा। वंचितों के मलाईदार नेता अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी चलाएंगे। उनकी जातियों के ही दबे-पिसे लोग उनकी छाती पर चढ़ बैठेंगे। देश के 70-80 करोड़ वंचितों को पहली बार पता चल रहा है कि पांच-सात हजार सरकारी नौकरियों पर उनकी जाति के सिर्फ मलाईदार लोग हाथ साफ करते हैं। शेष सभी लोग अज्ञान, अभाव और अपमान का जीवन जीते हैं। उनके लिए न तो सवर्ण नेताओं ने कोई ठोस काम किया और न ही अ-वर्ण नेताओं ने।
- जाति की गिनती को यह कहकर जायज ठहराया जा रहा है कि आपको आंकड़ों से क्या परहेज है? बिना सही आंकड़ों के आप वैज्ञानिक विश्लेषण कैसे करेंगे? ऐसा तर्क करने वालों से कोई पूछे कि जाति गिनाने में कौन-सी वैज्ञानिकता है? सामाजिक और आर्थिक न्याय देने के लिए क्या जानना जरूरी है? जात या जरूरत? जिसे भी जरूरत है, उसे बिना किसी भेदभाव के विशेष अवसर दिया जाना चाहिए, लेकिन जात के आधार पर अवसर देना ऐसा है, जैसे कोई अंधा रेवड़ी बांट रहा हो
- भास्कर के दिल्ली संस्करण (11 मई) में ‘मेरी जाति, सिर्फ हिंदुस्तानी’ लेख छपने के बाद ‘सबल भारत’ नामक संगठन ने आंदोलन छेड़ दिया है। उसे देश के कोने-कोने से समर्थन मिल रहा है। इस आंदोलन के आयोजकों में अनेक दलित और वंचित वर्गो के शीर्ष लोग भी शामिल हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सिखों की शिरोमणि सभा, बाल ठाकरे तथा कई अन्य सामाजिक और राजनीतिक हस्तियों ने इसका समर्थन किया है। अमिताभ बच्चन ने भी अपने ब्लॉग पर ‘मेरी जाति भारतीय’ लिख दिया है। जनगणना में जाति घुसाने का विरोध उतनी ही तन्मयता से होना चाहिए, जैसेकि 1857 में अंग्रेजों का हुआ था। यदि हमारे नेतागण इस राष्ट्रविरोधी मांग के आगे घुटने टेक दें तो भारत के नागरिक जाति के कॉलम को खाली छोड़ दें या लिखवाएं - ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी!’
- डॉ वेदप्रताप वैदिक