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[परम रम्य गिरिवर कैलासू, सदा जहाँ शिव उमा निवासू।।
सिद्ध तपोधन जोगिजन, सुर किन्नर मुनि वृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल, सेवहिं सिव सुखकंद।।
हरिहर विमुख धर्म रति नाहीं, ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं।।]
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की यह पंक्तियां भगवान शंकर के दिव्यधाम कैलास की हिंदू जनमानस में मान्यता, महत्व और उत्सुकता को प्रतिपादित करती हैं।
- मैं इस तीर्थयात्रा का साक्षी होने के कारण कह सकता हूँ कि यह केवल भारत से चीन तक की दुर्गम यात्रा नहीं है। यह वह अध्यात्म पथ है जो जीव को जीवित रहते हुए ही ईश्वर तक ले जाता है। पुराणों में 'सशरीर स्वर्गारोहण' शायद इसे ही कहा गया होगा। इस यात्रा में दुर्गम पथ भी हैं, आँधी-तूफान-बारिश भी और वह प्रतिकूल परिस्थितियां भी जहाँ श्वांस लेना भी श्रम प्रतीत होता है। यहाँ आधुनिक जीवन का कोई तत्व नहीं पर पंचतत्व से निर्मित मानव शरीर प्रकृति से सामंजस्य बना ही लेता है। यह शिवकृपा से ही संभव है।
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मानसरोवर का जल इतना ठंडा था कि पूरा शरीर थरथरा उठा किंतु उस थरथराहट में भी एक आत्मिक सुख, मानसिक ऊर्जा इंगित कर रही थी कि यह अनुभव दुर्लभ है। यह अनुभव पवित्र है और यह वह जल है जिसमें संभवत: स्वयं औघड़-अविनाशी-नीलकंठ भगवान शिव स्नान करते होंगे।
कैलास के दिव्य दर्शन और मानसरोवर के जल में स्नान करते हुए मुझे साक्षात् शिव की प्रतीति हो रही थी। यह दृश्य लगभग 15-20 मिनट तक ही रहा। इसके बाद पुन: कैलास को बादलों ने ढंक लिया।
- [संदीप गुप्ता]
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