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जो लोग भारत के भविष्य के प्रति आशावादी हैं वे आर्थिक विकास के गिलास को आधा भरा हुआ देखते हैं और जो निराशावादी हैं वे आधा खाली। मेरे विचार में दोनों ही मूल पहलू से भटके हुए हैं और यह पहलू उस मेज से संबंधित है जिस पर गिलास रखा हुआ है। अगर मेज की लकड़ी में घुन लगा हुआ है तो यह जल्द ही गिर जाएगी और मेज पर रखा हुआ गिलास लुढ़क जाएगा। भारत के भविष्य के सामने अहम सवाल यह है कि व्यवस्था की बुनियाद कितनी मजबूत है, न कि इसकी आर्थिक संवृद्धि दर कितनी ऊंची या नीची है। बहुत से लोगों को यह अहसास नहीं है कि तुच्छ राजनीति हमारी व्यवस्था में नकारात्मक शक्तियों का संचार कर रही है। यह दीमक की तरह लोकतांत्रिक मूल्यों को चट कर रही है और देश को अधिकाधिक अस्थिरता के मुंह में धकेल रही है। अगर व्यक्तिगत हितों के लिए देश के आधारभूत हितों को तिलांजलि देने का वर्तमान ढर्रा जारी रहता है तो देर-सबेर व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। सामाजिक असंतोष और स्वतंत्रता के हनन के हजारों वर्र्षो के दुर्भाग्यपूर्ण अतीत का प्रेत किसी न किसी रूप में हमें फिर से आ दबोचता है। इस विध्वंसात्मक सिलसिले की हालिया कड़ी है जातीय आधार पर प्रस्तावित जनगणना। इससे पुराना संक्रमण फैलने की पूरी आशंका है।
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यह त्रासदी इस तथ्य से और गहरा जाएगी कि जाति व्यवस्था हिंदुत्व के मूल ढांचे के खिलाफ है।
यह मूल ढांचा उपनिषद सोच में निहित है। इसका केंद्रीय संदेश है कि ब्रह्मंांड में तमाम जीवन दिव्य है और जीव विशेष परम दिव्यात्मा की दिव्य अभिव्यक्ति है। इस अलौकिक सिद्धांत में समता का आशय सन्निहित है। भविष्य पुराण के अनुसार, 'चूंकि तमाम जातियों के सदस्य ईश्वर की संतान हैं इसलिए वे एक ही जाति से संबद्ध हैं। तमाम मानव एक ही पिता की संतान हैं और एक पिता की संतान की अलग-अलग जाति नहीं हो सकती।' महाभारत में भृगु को उत्तर देते हुए भारद्वज इस विषय के मूल पहलू पर प्रकाश डालते हैं, 'हम सब इच्छाओं, क्रोध, भय, दुख, चिंता और श्रम से प्रभावित होते हैं, इसलिए हमारे बीच में जातिगत भेद कैसे हो सकता है।' हिंदुत्व की मूल भावना ही जाति व्यवस्था के विरुद्ध है। इस व्यवस्था से आबद्ध एकमात्र स्त्रोत ऋग्वेद में वर्णित है। इसके अनुसार, पुरुष चार भागों में विभक्त है। पहला भाग मुंह है, दूसरा भुजाएं, तीसरा जंघा और चौथा पैर। इस बयान की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि ब्राह्मंाण सबसे ऊंचे अंग से संबंधित हैं और शूद्र सबसे निचले अंग से। इनके बीच में क्षत्रिय, यानी योद्धा और वैश्य अर्थात व्यापारी और किसान आदि आते हैं। यह व्याख्या स्पष्ट रूप में मनगढ़ंत और अस्वीकार्य है।
कोई धार्मिक सत्ता जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था का निर्धारण नहीं कर सकती। 'अन-हिंदू स्पिरिट ऑफ कास्ट रिजिडिटी' आलेख में अरविंद ने अवलोकन किया है, 'जातीय व्यवस्था की विकृति के अधम विचार और श्रेष्ठता की दिमागी खपत जो असमानता पर निर्भर है, परम शिक्षा से असंगत है। यह विचार हिंदुत्व की मूल भावना के विपरीत है। हिंदुत्व प्रत्येक व्यक्ति में अकाट्य देवत्व देखता है। निहित हितों के विशुद्ध स्वार्थ के कारण ही हिंदुत्व की असली भावना विलुप्त हो गई है और एक अविवेकपूर्ण व जड़ सामाजिक व्यवस्था ने जन्म लिया है।' समाज का ढांचा इस तरह का बना दिया गया कि ब्राह्मंाण जाति खुद को सूर्य के समान समझने लगी जिसके चारों ओर अन्य जातियां उपग्रह की तरह घूमती हैं। शूद्रों के साथ आपत्तिजनक व्यवहार किया गया। हिंदू विचार का मूलाधार, जो पूरी मानवजाति को एक परिवार के तौर पर देखता है, को किनारे कर दिया गया और ऐसी व्यवस्था की स्थापना की गई, जिसे तमाम मानव संस्थानों में सर्वाधिक विध्वंसक कहा जाता है।
ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों ने लोगों के बीच विभेद को गहरा करने में अपना भला समझा। 1901 में जनगणना आयुक्त हर्बर्ट रिस्ले ने जातीय वर्गीकरण में सामाजिक श्रेष्ठता के तत्व घुसा दिए। इससे जातीय भावना को संजीवनी मिली और विभिन्न जातीय सभाएं विकसित हो गईं। 1921 में जनगणना सुपरिंटेंडेंट मिडलटन ने कहा था, 'हमारे भूमि रिकॉर्ड और आधिकारिक दस्तावेजों ने जाति की पुरातन जड़ता को और पुख्ता कर दिया। हमने पूरे समाज को जातियों में विभक्त कर दिया।' दमित वर्गो के लिए अलग निर्वाचन के माध्यम से ब्रिटिश शासन ने हिंदुओं में विभेद के स्थायी बीज रोपने का भी प्रयास किया। इस फैसले को तब बदला गया जब गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए और डा. अंबेडकर के साथ समझौते की स्थिति बनी जिसे हम पूना पैक्ट के नाम से जानते हैं।
[जगमोहन: लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]
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