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'पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी।' कर्नल इलाही बख्श ने जिन्ना का यह कथन अपनी पुस्तक में दर्ज किया है। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने जिन्ना के इस डायलाग पर मजा लेते हुए कहा-''बुड्ढे को अब अकल आई है।''
- बंटवारे के खेल के सारे महत्वपूर्ण खिलाड़ी चाहे वे जिन्ना हों या गांधीजी, अक्सर बैरिस्टर रहे हैं। नेहरू, पटेल भी वकील रहे थे। विवादग्रस्त संपत्ति के समान भारत का बंटवारा ब्रिटिश कानून की सोच से बंधे वकीलों द्वारा किया गया 'आउट आफ कोर्ट' सेटलमेंट था। 16 अगस्त, 1946 के जिन्ना के 'डायरेक्ट एक्शन' के तीन दिनों में पांच हजार से ऊपर लाशें कलकत्ता के शमशान में पहुंच जाने के बाद काग्रेसी नेताओं के लिए सेटलमेंट एक मजबूरी बन गई।
- यह एक त्रासदी है कि विभाजन के पहले दंगों में हजारों और विभाजन के बाद के दंगों में लाखों लोग मरे, लेकिन मुल्क का विभाजन रोकने के लिए कोई नहीं मरा। गांधी ने संवैधानिक दायरों का अतिक्रमण करते हुए राजनीति को अभिजात वर्ग की सीमा से निकालकर कस्बों और गांवों तक पहुंचा दिया। यह बात जिन्ना की सोच के विपरीत जाती थी, लेकिन गांधी से एक शुरुआती गलती हो गई, जो शायद अंत में जाकर पाकिस्तान बनने का कारण बनी। कमाल अता तुर्क द्वारा तुर्की के खलीफा को हटाया जाना कोई भारतीय मुद्दा नहीं था, लेकिन गांधी ने मुस्लिम वर्ग की सहभागिता के लिए खिलाफत को राष्ट्रीय आदोलन के एजेंडे में शामिल कर लिया। यह आजादी का जागरण काल था। इस 'खिलाफत' के एजेंडे ने आजादी के अभियान को मजहबी लक्ष्य भी दे दिए। यह सत्य है कि जिन्ना ने खतरा भांप कर गांधी के इस कदम का विरोध किया था।
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यहां सवाल बनता है कि जिन्ना जैसे प्रखर राष्ट्रवादी और कौमी तराना लिखने वाले अल्लामा इकबाल आगे चलकर क्यों पाकिस्तान समर्थक हो जाते हैं? ऐसा क्यों हुआ, इसकी वजह हमें आजादी के आदोलन में खोजना चाहिए।
आजादी के संघर्ष में रणनीतिक विकल्पों के अभाव ने हमें बंटवारा स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। पार्टीशन की वजह अहिंसक आदोलन की रणनीतिक मजबूरियां थीं। गांधी का अहिंसक आदोलन जो गांवों-गरीबों तक आजादी की अलख जगाता है वह आगे आकर जिन्ना की फिरकापरस्ती और हिंसा के इस्तेमाल के सामने असहाय, बेबस हो जाता है। अगस्त 1946 में जिन्ना की हिंसा के खिलाफ गांधी, नेहरू के पास कोई रणनीतिक, वैचारिक विकल्प नहीं था। दंगाग्रस्त नोआखाली से वापसी के बाद गांधी को राजनीतिक दृश्यपटल पर सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के न होने का अफसोस हुआ।
- समझौते कभी समाधान नहीं होते, वे सिर्फ युद्ध को स्थगित करते हैं।
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अपने यहां हम बंट गए, क्योंकि हम युद्ध की आशंका से डर गए।
बंटवारा इस मुल्क के जिस्म पर जुल्म के जिंदा निशान जैसा है। भयभीत जमातों ने बंटवारा स्वीकार कर भारतीय अस्मिता पर जो कलंक लगाया है वह मिटाना जरूरी है। इसलिए कलंक के मिटने तक हमारे यहां इतिहास व्यतीत नहीं होगा।
- मिस्त्र और फलस्तीन के अरब नेताओं से जिन्ना ने दिसंबर 1946 में कहा था-''अगर हिंदू साम्राज्य बन गया तो इसका अर्थ है भारत और दूसरे मुस्लिम देशों में इस्लाम का अंत।'' ये वही राष्ट्रवादी जिन्ना थे जो कभी भगत सिंह को फांसी से बचाने के लिए खड़े थे। अब वे उन लक्ष्यों से बहुत दूर भटक चुके थे।
- गीता युद्धभूमि से भारत को ईश्वर का निर्देष है। जब अन्य सब मार्ग बंद हो जाएं तो युद्ध ही एक विकल्प होता है।
- जिन्ना से सांप्रदायिक समझौते के बाद मिली आजादी का परिणाम यह है कि आज हमारे सामने क्षेत्रों, जातियों और संप्रदायों से समझौतों का न खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हो गया है और हर समझौता राष्ट्र और आजादी की हार बनता जाता है। सवाल आज भी है। जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के ब्लैकमेल का मुकाबला कैसे किया जाए?
- [आर. विक्रम सिंह: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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Wednesday, September 9, 2009
समझौतापरस्ती का कलंक - Jagran - Yahoo! India - Nazariya News
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2009-09-09T21:52:00+05:30
Common Hindu