Tuesday, December 22, 2009

भ्रांतिरू पेण संस्थिता

  • tags: no_tag

    • देश का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। लोकतंत्र का स्वरू प छिन्न-भिन्न होता दिखाई पड़ रहा है। जनता को जिस प्रतिपक्ष से अधिक अपेक्षाएं रहती हैं, वही भाजपा आत्महत्या के मार्ग पर मुड़ती दिखाई पड़ रही है।
      जिस प्रकार नए अध्यक्ष का चुनाव किया गया।

      जिस प्रकार संघ ने कह दिया कि आगे स्वयं गडकरी जानें।
      जिस प्रकार सभी दिग्गजों ने अपनी-अपनी कुर्सियां हथिया लीं और संसदीय बोर्ड मूकदर्शक बना बैठा रहा।
      जिस प्रकार कुर्सी से उतरते ही राजनाथ सिंह कह पड़े कि "बड़े नेता के दबाव और दखल के कारण उनके निर्णय लागू नहीं हो पाए, यह परम्परा अच्छी नहीं है।"

      जिस प्रकार प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से तीन-तीन चुनाव हारने पर भी गडकरी को अध्यक्ष बनाया गया।
      जिस प्रकार संसदीय दल के अध्यक्ष का पद सृजित करके आडवाणी ने स्वयं को भीष्म पितामह की तरह इच्छा-मृत्यु का अधिकारी साबित करने का प्रयास किया है।
    • लगता यही है कि आने वाले समय में संघ की अनिर्णय की भूमिका ही भाजपा की दुर्गति का कारण बनेगी। आरक्षण ही की तरह संघ/ गैर संघ की लड़ाई बड़ी होती जाएगी, भाजपा छोटी होती जाएगी।
    • गुलाब कोठारी

Posted from Diigo. The rest of my favorite links are here.