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मुद्दा सगोत्र विवाह का है ही नहीं-नज़रिया-विचार मंच-Navbharat Times
- बाल मुकुंद
- यदि किसी समाज में समान गोत्र में शादी नहीं करने का रिवाज है, तो नहीं करें। कानून किसी को यह नियम मानने से नहीं रोकता। असल मुद्दा यह है कि क्या पंचायतों को किसी को भी गांव से निकालने, आर्थिक या शारीरिक दंड देने या फांसी पर लटकाने का अधिकार है? हमारी जानकारी के अनुसार देश में किसी भी व्यक्ति, जाति, समुदाय या संप्रदाय को किसी अन्य व्यक्ति को ऐसे दंड देने का अधिकार नहीं है। इस पर बहस की जरूरत है कि खाप पंचायतें जब ऐसे फैसले लेती हैं तो उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होनी चाहिए। मुद्दा यह है कि यदि कोई ये रिवाज, ये बंधन नहीं मानना चाहे तो क्या उसे दंडित करने का अधिकार पंचायतों को है? आश्चर्यजनक रूप से इन पर सभी पंचायतों के समर्थकों ने चुप्पी साध रखी है।
- गोत्र परंपरा सप्त ऋषियों से आरंभ हुई, जैसे विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप। उनके वंशज ब्राह्माण थे। शायद दूसरी जातियां इस थ्योरी को पसंद न करें कि यहां की सभी जातियां उन्हीं ब्राह्माणों की वंशज हैं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस विवाद को साइंटिफिक साबित करने के लिए इसमें वंश बीज और जीन ट्रांसफर जैसे जुमले घुसाना सही नहीं है। हिंदू कोड बिल में माता-पिता के कुल की पांच या सात पीढि़यों तक शादी पहले से ही वजिर्त है।
इस मामले में दूसरी थ्योरी यह है कि उन ब्राह्माणों ने दूसरी जाति के जिन लोगों को अपना यजमान बनाया, उन्हें अपने गोत्र का नाम दे दिया। यदि इसे सही मानें तब भी एक जीन के ट्रांसफर या एक ब्रीड का तर्क निरस्त हो जाता है। वैसे यह थ्योरी सत्य के ज्यादा नजदीक लगती है, क्योंकि देश के दूसरे प्रदेशों में गैरब्राह्माण जातियों में गोत्र को बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता।
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