Thursday, September 10, 2009

visfot.com । विस्फोट.कॉम - चर्च साम्राज्यवाद का दलित प्रेम

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    • आर एल फ्रांसिस
    • 25 अगस्त को आंध्र प्रदेश सरकार ने विधानसभा में धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग वाला एक बिल पारित कर भारत सरकार से गुहार लगाई है कि वह संविधान संशोधन कर धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का कार्य करे। विगत दो दशकों से चर्च नेता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए करोड़ों धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने के लिए `करो या मरो´ की तर्ज पर अपनी रणनीति का ताना-बाना बुनने में जुटे हुए है।
    • सैकड़ों वर्ष पूर्व देश के करोड़ों वंचित लोगों ने जातिवाद से मुक्ति की आशा में धर्मपरिवर्तन का मार्ग चुना। दुर्भागयपूर्ण तथ्य यह है कि चर्च नेतृत्व अपने ढांचे में जातिवाद को समाप्त नहीं कर पाया है उल्टा वह अपनी धार्मिक एवं राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिये ईसाइयत में जातिवाद को और मजबूत करने में लगा हुआ है।
    • जब भारत का संविधान बनाया गया तो हमारे हिन्दू दलित भाईयों के लिये उस में विशेश कानून बनाये गये। वंचित ईसाइयों के पास भी विकल्प था कि वह अपने मूल धर्मों में लौट सकते थे परन्तु वंचित ईसाइयों ने इस विकल्प को ठुकरा दिया उनकी ईसा मसीह के इन्हीं शब्दों में आस्था बनी रही कि `हे थके और बोझ से दबे हुये लोगों, मेरे पास आओं, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। (मत्ती 11:28) जब संविधान निर्माताओं ने हिन्दू दलितों के लिये आरक्षण उपलब्ध करवाया तो हिन्दुओं, जो कि बहुसंख्यक थे ने दलित वर्गो के आरक्षण को सिंद्वात रुप से स्वीकार कर लिया। संविधान में `सामनता´ के अवसर को उन्होंने दलित वर्गो के पक्ष में कुर्बान कर दिया उस बुरे व्यवहार और भेदभाव के मुआवजे/हर्जाने के रुप में, जो उनके पूर्वजों ने दलित वर्गो के साथ किया था।
    • जब चर्च के नेता यह दावा करते हैं कि भारत की 70 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या दलितों की श्रेणी में आती हैं तब वे खुले मन से यह स्वीकार क्यों नहीं करते कि चर्च उन्हें सामाजिक-आर्थिक समता देने में असफल रहा हैंर्षोर्षो चर्च के भीतर भी उनके प्रति भेदभाव क्यों बरता जा रहा हैं?
    • अब कहा जा रहा है कि यदि चर्च ऊंच-नीच और अस्पृष्यता के दोष को मिटाने में विफल हुआ है तो इसके लिए चर्च नहीं, भारत का हिन्दू वातावरण दोषी हैं। यहां चर्च से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि भारत में तो हिन्दू वातावरण के कारण चर्च अपने अनुयायियों को सामाजिक समता और आर्थिक सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाया, पर दक्षिण अमरीका में उसने क्या किया? वहां तो पूरी की पूरी जनसंख्या पर बलपूर्वक ईसाई धर्म थोप दिया गया। वहां तो कोई गैर ईसाई वातावरण शेष नहीं बच पाया तब भी वहां की 95 प्रतिशत जनता घोर गरीबी में क्यों डूबी रह गई? चर्च के वैभव के विरुद्ध वह विद्रोह का झंडा उठाने के लिए क्यों मजबूर हुई? क्यों अपने अस्तिव की रक्षा के लिए वहां चर्च को लिबरेशन थियोलाजी (मुक्ति दर्शन) का स्वांग रचना पड़ा?