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पूरी कश्मीर घाटी में पिछले दो हफ्ते से जमात-ए-इस्लामी द्वारा गठित हिजबुल मुजाहीदीन जमकर कत्लेआम कर रहा है. राज्य सरकार और राज्य के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला पूरी तरह से नकारा साबित हो चुके हैं. ऐसे ही वक्त में 19 जनवरी 1990 को कश्मीर में बतौर राज्यपाल जगमोहन का प्रवेश होता है.
जिस दिन जगमोहन श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरते हैं उसी रात कश्मीर घाटी में तीन नारे गूंजते हैं. पहला नारा- काश्मीर में रहना है तो अल्लाहो अकबर कहना है. दूसरा नारा- यहां क्या चलेगा?- निजामे मुस्तफा. और तीसरा नारा- हिन्दू औरतों सहित हम पाकिस्तान के साथ हैं.) ये तीनों नारे जमात-ए-इस्लामी द्वारा तैयार किये गये संगठन हिजबुल मुजाहीदीन के लोग लगा रहे थे. 19 जनवरी की रात को कश्मीर घाटी में जो कत्लेआम हुआ उसने कश्मीर को ही नहीं इंसानियत को लहुलुहान कर दिया. श्रीनगर से लेकर दूर दराज के गांवों तक उस दिन दर्जनों कश्मीरी पण्डितों का काटकर फेंक दिया गया. वहां से जो सिलसिला शुरू हुआ वह तब तक जारी रहा जब तक कि कश्मीर पण्डित विहीन नहीं हो गया. आज कश्मीर के सात लाख से अधिक कश्मीरी पण्डित देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों में रह रहे हैं.अब श्रीनगर में भी शायद ही कोई कश्मीरी पण्डित बचा हो.
- जिस इस्लामिक राष्ट्रवाद की अफीम खिलाकर घाटी में आतंकवाद को पैठ दी गयी थी कश्मीरी पंडितों के वहां से जाने के बाद उसने कश्मीरी मुसलमानों को अपनी जद में ले लिया. सीधे तौर पर भले ही कश्मीरी मुसलमानों को निशाना न बनाया जाता हो लेकिन आतंकवाद सिर्फ बंदूक के जरिए ही नहीं आता. गोली किसी पर भी चले शोर सबको सुनाई देता है. और गोली चलने का शोर जो भी सुनेगा वह शांत शायद ही रह सके.
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तीसरा और अंतिम रास्ता है स्थानीय लोगों की पहल. यही वह एकमात्र कारगर रास्ता है जिसके लिए सरकार और संगठन दोनों ही जी-तोड़ कोशिश कर सकते हैं और जिससे कुछ रास्ता निकलने की उम्मीद भी पाली जा सकती है.
दुर्भाग्य से इसी एक रास्ते के बारे में न तो कश्मीरी पण्डित सोच रहे हैं और न ही कश्मीरी पण्डितों के रहनुमा. हिन्दूवादी संगठन जो रास्ता सुझा रहे हैं वह उस दिन साकार होगा जब कश्मीर से मुसलमानों का सफाया हो जाएगा. वह दिन शायद दोजख के दिन ही आए. तब तक दर दर भटकते कश्मीरी पण्डित भी सांस्कृतिक इकाई की बजाय धार्मिक कठपुतली बन जाएंगे और तिब्बती शरणार्थियों की तरह अपने होने का कोई और ही अर्थ विकसित कर लेंगे.
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